शेखर : एक जीवनी (भाग 1)
इसका?
शेखर ने कुछ देखा नहीं, लेकिन वहाँ बैठे भी उसकी कल्पना को वह पूरा दृश्य देखते देर नहीं लगी, वह सम्भ्रान्त-सा, ठहर गया-सा भाव, वह शेखर की ओर उठा हुआ अँगूठा-'इसका!'
शेखर रोटी छोड़कर उठ गया, कमरे से बाहर ही उसका सारा शरीर शिथिल पड़ गया, उसके आगे अन्धकार छा गया।
शाम तक वह वहीं वैसा ही पत्थर-सा बैठा रहा। खाया-पिया कुछ नहीं। माँ आयीं, झिड़कती रहीं, फिर अपने को कोसती रहीं, रोयीं, चली गयीं। पिता आये, डाँट-डपटकर चले गये। रात हुई, सब सो गये, सन्नाटा हो गया। शेखर ने अपने कमरे के द्वार बन्द करके कुंडी चढ़ा ली, बत्ती बुझायी और चारपाई पर बैठकर सुलगने लगा...
बहुत रात गये उसने अपनी डायरी उठायी और उसमें अपना उफान उतारने की कोशिश करने लगा...
'अच्छा होता कि मैं कुत्ता होता, चूहा होता, दुर्गन्धमय कीड़ा-कृमि होता-बनिस्बत इसके कि मैं वैसा आदमी होता, जिसका विश्वास नहीं है...'
वह उठ खड़ा हुआ। दीवार की ओर उन्मुख होकर अँग्रेजी में बोला, 'आई हेट हर? आई हेट हर!' (मैं उससे घृणा करता हूँ) और फिर कपड़े पहनकर खिड़की की राह बाहर कूदकर घूमने चल दिया।
कुछ मील दूर एक बाग में पहुँचते-पहुँचते उसने प्रतिज्ञा कर ली कि वह माँ की नहीं मानेगा, उससे कोई सम्पर्क नहीं रखेगा, कोई ऐसा काम नहीं करेगा, जिसमें माँ को बाध्य होकर उसका रत्ती-भर भी विश्वास करना पड़े-
यह प्रतिज्ञा उसने जबानी नहीं की, एक कागज पर लिख डाली। पर तभी उसके भीतर एक और परिवर्तन हुआ, उसने उस कागज़ के चिथड़े किये, उन्हें गीली जमीन पर फेंका और पैरों से रौंदने लगा-तब तक जब तक कि वे कीच में सनकर, दबकर अदृश्य नहीं हो गये...
'मैं योग्य हूँ, योग्य रहूँगा! उसमें विश्वास की क्षमता नहीं है, तो मैं क्यों पराजित हूँगा?' सबेरा होते-होते वह घर लौट आया।
एक असम्बद्ध दृश्य मुझे दीखता है। वह अत्यन्त सजीव है। मैं उसे प्रायः बिलकुल प्रत्यक्ष देख सकता हूँ, किन्तु उसका ठीक अनुक्रम मुझे नहीं मिलता। चित्र में अपना जो रूप मुझे दीखता है, उससे मैं अनुमान करता हूँ कि उसी वर्ष का है, पर इस अनुमान को पुष्ट करने में स्मृति सहायक नहीं होती।
मैं बैंक से पिता का चेक भुनाकर उनके मासिक वेतन का रुपया लाया हूँ। पिता दफ्तर गये हुए हैं, मैं माँ को वह रुपया अपनी जेब से निकालकर दे रहा हूँ। कई तरह के बहुत-से नोट हैं, और बहुत से चाँदी के रुपये, इसलिए माँ के बढ़ाए हुए हाथ को देखकर मैं कहता हूँ-'माँ, आँचल में लो-बहुत हैं।'
माँ धीरे-धीरे आँचल फैलाती है, पर हँसती हुई कहती है-'आँचल तो तब फैलाऊँगी जब तुम कुछ कमा के लाओगे; इसके लिए क्या?'
मैं रुपया डालने को हुआ हूँ पर रुक जाता हूँ। एक विचित्र दृष्टि से माँ की ओर देखता हूँ, जिसे वह नहीं समझती-शायद मैं भी नहीं समझता। फिर उसके फैले हुए आँचल की उपेक्षा करते हुए मैं तिपाई खींचकर उस पर रुपया देता हूँ-'गिन लो।' और वहाँ से हट जाता हूँ।